Friday, March 19, 2010

Impact of TRP on Television News Content


टी आर पी - लोकतंत्र के चौथे खम्बे के लिए अभिशाप है या वरदान ? इसपर इन दिनों मीडिया में चर्चाएं जोरों पर है। जरा गौर कीजिये, देश के चार महानगरों के महज 10 हजार घरों के जागरूक दर्शकों की राय जान कर एक एजेन्सी यह तय कर देती है कि किस वक्त, किस चैनल का टी आर पी सबसे ज्यादा था और किसका, सबसे कम । ये चंद हज़ार लोग यह तय कर देते है कि सवा अरब लोगों की पसंद - नापसंद क्या है ? या सच कहें तो ये बयां करते हैं टीवी की (तथाकथित) काबिलियत को ।
अगर ये यही तक सीमित रहे तो शायद किसी को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन ये है नंबर १ की दौड़ जिससे टीवी का पूरा रेवेन्यु जुड़ा है ।
आज टीवी पर चलने वाले प्रोग्रामों को डिजाईन करने वाले प्रोड्यूसर और एडिटर नहीं बल्कि ये टी आर पी निर्धारित करते हैं। यह टी आर पी का ही खेल है कि आप घर पर जैसे ही रिमोट उठाते है कि देखें देश दुनिया का हाल , आप को पता चलता है कि साई बाबा बोलने लगे है । किसी चैनल पर आप को यह बताया जाता है कि यह मक्कारी है, यह भ्रम फैलाने कोशिश है, ये हजारो लाखो भक्तों का अपमान है । टी आर पी के युद्ध में फसे इन चैनल से आप आगे बढ़ते हैं तो अगले चैनल पर आपको यह बताया जाता है कि एक लड़की ने कैसे अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुबारा धरती पर नागिन के रूप में जनम लिया है। ख़ुद दास मुंशी कह चुके हैं कि टी आर पी के इस तंत्र से उन्हें धमकी भी मिल चुकी है , ऐसी ही धमकी एक बी जे पी के एक लीडर को भी मिल चुकी है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले इस देश में आज इसपर आवाज़ उठाने वालो की कमी है . आज मीडिया को जरुरत है टैम रेटिंग और शुक्रवार के इस साप्ताहिक जाल से बाहर आने की और इसके मैकेनिज्म को बदलने के लिए सरकार , पत्रकारों और बाज़ार के प्रतिनिधियों को एक साथ कोशिश करने की। इसी प्रकार के प्रयासों में से एक है सी एम एस( सेंटर फॉर मीडिया स्ट्डीज ) के द्वारा २० मार्च २०१० को आयोजित ग्रुप डिस्कसन " IMPACT OF TRP ON TELEVISION NEWS CONTENT " । इसमें सम्मानित वक्ता है पंकज पचौरी- एनडीटीवी , एन के सिंह -BEA , अमित त्रिपाठी - जी न्यूज़ , बी वी राव - गवर्नंस नॉव, रचना बर्मन - टाइंमस ग्रुप , संजय रॉय -DLF
इस डिस्कसन में आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है ।
Time - 10:30 Am
Date - 20th March २०१०
Venue - CMS RESEARCH HOUSE, 34 B, SAKET COMMUNITY CENTRE, SAKET PVR, SAKET , NEW DELHI - 110017
PH: P: 91 11 4054 5335 (D), 2686 7348, 2686 4020 M: 91 9718503610
avinash@cmsacademy.org

Wednesday, December 5, 2007

कहाँ जाये तसलीमा

तसलीमा नसरीन अब क्या करें ? कहाँ जाये ? इन्हें कट्टरपंथियो के आगे घुटने टेकने होंगे या उन्हें भारत छोड़ना होगा क्या होगा उनका ? पर हमऔर आप क्यों सोचने यह सब हमने तो बस देख सुन लिया , चाय , काफ़ी पीकर गरमा - गरम बहस कर ली और हो गया बस। आखिर क्यों सोचें हम तसलीमा के बारे में । उसने लिखा ही क्यों कुछ ऐसा वैसा अब भुगते वो हमें क्या । लेकिन कब तक , कब तक हम बचकर निकलते रहेंगे इन अप्रिय सवालों से । वैसे ये कोई नयी बात नहीं । यहाँ कभी सफदर मारे जाते है तो कभी रुश्दी के सर की बोली लगाइए जाती है तो कभी तसलीमा को भटकने को मजबूर किया जाता है। कब तक हम अपनी नीतियाँ , सोच , अपना लक्ष्य अपना लेखन उनकी मरजी से तय करेंगें . अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी स्वतंत्रता जनतंत्र का आधार है पर तसलीमा को ये भी मयस्ससर नहीं । इस बार मामला अन्य मामलों से थोड़ा अलग है क्योकि इस बार गवाह खुद कटघरे में खड़ा है । धर्मं की राजनीति करने के लिए हर बार भाजपा पर अंगुली उठाने वाली और खुद को सेकुलारिस्टों की पार्टी कहने वाली वामपंथियों का दोहरा चरित्र सबके सामने आया है । नंदीग्राम के बाद यह दूसरा मौका है जब वामपंथियों की सच्चाई और आइडियोलाजी सबके सामने आयी है । बंगाल में पंचायत चुनाव होने वाले है ऐसे में तसलीमा के साथ खड़ी होकर वाम मुसलमानों के बड़ा वर्ग को नाराज नहीं करना चाहती । स्वाधीन भारत में १९४७ तक ब्रिटिश शासकों द्वारा जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाया गया उसने हिन्दू चेतना को तो धर्मं , भाषा और क्षेत्र के आधार पर बांटा है वही मुस्लिमों को मजहब के नाम पर संगठित किया है जिसके कारन मुस्लिम एक बड़े वोट बैंक के रुप में उभरा है । अचानक ndtv के मुक़ाबला में सत्यवत चतुर्वेदी का बयान याद आ गया की" किसी को भी किसी कि भावना को ठेस पहुचाने का कोई हक नहीं" । अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब राम मुद्दे को जिसमे कांग्रेस ने अपने दिए गए हलफनामें में राम के अस्तित्व को ही नकार दिया था तब तो उन्हें लोगों के भावना को ठेस पहुचाने की चिंता नहीं थी । हर बार ये चिंता मुस्लिमों के साथ ही क्यों होती है ? ऐसा पहली बार नहीं जब कांग्रेस ने इसप्रकार के विवादों में अपना दोगलापन दिखाया है । जब वो मुसलमानों को खुश करने के लिए संविधान में संशोधन कर सकती है तो अपने ही दिए गए वयानों में संशोधन करना कौन सी बड़ी बात है । राम के बारे में अगर भाजपा या हिंदुत्वा पार्टियों ने कुछ कहा तो वो धर्मं की राजनीति होती है मुसलमानों को खुश करने के लिए लिए गए हर सही गलत धर्मानिरपेक्षता। क्यों हर बार उनका हर मामला धार्मिक हो जाता है और हमारा हर धार्मिक मामला ामजिक् शायद इसके लिए ये तथाकथित धर्मानिरपेक्ष पार्टिया जिम्मेवार है जो इन्हें शह देती है । जहाँ ये संख्या में ज्यादा है वहाँ अपनी शरीयत लाद देंगे और जहाँ कम है वहाँ मजहब पर हल्ला , शरीयत पर हमला और इसलाम ख़तरे में का नारा लगाने लगेंगे । ये तो खैरियत है की इसबार कटघरे में तसलीमा नसरीन है अगर इनकी जगह कोई शुक्ल , शर्मा , यादव या पाण्डेय होते तो अबतक ये फतवा कंपनिया अब तक उनके सर की बोली लगाकर कोई फतवा ठोक चूकी होती । रही सही कसर ये सूडो सेकुलारिस्ट पूरी कर देते है जो औप्रेस्सेड मायनारिटी के नाम पर उनकी हर गलत को सही ठहराते उनके कदम से कदम मिलते चलते है । बहुसंख्यक कट्टरवाद से ज्यादा खतरनाक है ये अल्पसंख्यक कट्टरवाद माकपा और कांग्रेस जितनी जल्दी इसबात को समझ ले उतना अच्छा है ।

Thursday, October 18, 2007

झारखंड का बाल दस्ता

झारखंड के ग्रामीण इलाकों और जंगलों से गुजरते हुए अगर किसी छोटे बच्चे के हाथ में कोई हथियारनुमा सामान नज़र आए तो आप उसे खिलौना समझने की भूल मत कीजिएगा. वह सच में हथियार हो सकता है. सौ फीसदी असली.झारखंड में पीपुल्स वार ग्रूप और एमसीसी जैसे नक्सली संगठनों में पहले भी बच्चों का इस्तेमाल होता रहा है. बाद में इन दोनों संगठनों के विलय के बाद बने सीपीआई माओवादी ने तो संगठन में बजाप्ता बाल दस्ते का गठन ही कर लिया. अब हालात ये हैं कि राज्य में फैले अधिकांश नक्सली संगठनों में बच्चे सक्रिय लड़ाई में शामिल हो गए हैं.सीपीआई माओवादी में 13-14 साल के बच्चे पहले भी हथियारबंद लड़ाई में शामिल रहे हैं. कम से कम राज्य की पुलिस तो ऐसा ही मानती है. राज्य सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान में बाल नक्सलियों की तस्वीर के साथ पूरे-पूरे पन्ने के पोस्टर और विज्ञापन भी छापे हैं. बच्चों के इस्तेमाल को सार्वजनिक करने के बाद माना जा रहा था कि नक्सली संगठनों में इस पर रोक लगेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नक्सली संगठनों ने इस ओर कुछ ज्यादा ही ध्यान देना शुरु कर दिया. सीपीआई माओवादी से अलग हो कर बनाई गई तृतीय प्रस्तुति कमेटी ने तो झारखंड में अपने हरेक इलाके में बच्चों का दस्ता तैयार कर लिया है. और अगर इनके नेताओं पर भरोसा किया जाए तो आने वाले दिनों में किशोर उम्र के कैडर पर अधिक ध्यान देने के लिए संगठन ने कमर कस ली है.तृतीय प्रस्तुति कमेटी यानी टीपीसी पलामू के सबजोनरल कमांडर गिरी जी कहते हैं- “संगठन को मज़बूत करने के लिहाज से यह ज़रुरी था कि हम बच्चों पर ध्यान दें. ये बच्चे ही कल की लड़ाई लड़ेंगे.”हालांकि गिरी जी इस बात से इंकार करते हैं कि उनके संगठन में इन बच्चों को हथियारों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है. गिरी जी के अनुसार दूसरे माओवादी संगठन तो ऐसा कर रहे हैं लेकिन उनके संगठन में सोलह साल तक के बच्चों को हथियारों से दूर रखा जा रहा है.एक और सबज़ोनल कमांडर छोटू जी बताते हैं- “ हम माओवादियों की तरह बच्चों को हथियार की लड़ाई में नहीं झोंक रहे हैं. इन बच्चों को हथियारों की प्राथमिक जानकारी तो इसलिए दी जाती है, जिससे कभी भी आपात स्थिति में ये बच्चे दुश्मन से निपट सकें लेकिन हमारा सारा ध्यान इनके मानसिक विकास में हैं. इसलिए हम इन बच्चों के लिए सुविधानुसार स्कूल भी चला रहे हैं.”सीपीआई माओवादी और टीपीसी, दोनों ही संगठन अपने बाल दस्ता के सदस्यों से गुप्त सूचनाओं का आदान प्रदान करने, गीत व नाटकों के माध्यम से अपना संदेश फैलाने व समान ढोने का काम लेते है. दोनों ही संगठन अपने इलाके में इन बच्चों के अधिकतम इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं. टीपीसी ने तो सीपीआई माओवादी के बाल दस्ते के कई सदस्यों को अपने संगठन में शामिल भी किया है.आख़िर नक्सली संगठनों को बच्चों पर इतना जोर क्यों है, इसका जवाब झारखंड के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी देते हैं- “बच्चों पर कोई शक नहीं करता, इसका लाभ ये नक्सली संगठन ले रहे हैं. हमारे लिए नक्सलियों के बाल दस्ते से निपटना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है.” इस पुलिस अधिकारी के अनुसार मुठभेड़ के दौरान जब बच्चों से सामना हो जाता है तो उन पर गोली भी चलाई नहीं जाती. ये बच्चे जब खबरों का आदान प्रदान करते है या कोई आग्नेयास्त्र लेकर एक जगह से दूसरी जगह जाते है तो उनपर किसी को शक नहीं होता. अगर ये पकड़े गये तो इन्हें हिरासत में रखना भी कम मुश्किल नहीं है. इसके अलावा मानवाधिकार संगठनों के कारण पुलिस इनके खिलाफ कोई सख्त कदम भी नहीं उठा

Friday, August 31, 2007

आजादी के मायने

महात्मा गाँधी ने कहा था " स्वतंत्र भारत में हमें हर व्यक्ति के आँखों से आंसू पोछने होंगे " आज आजादी के ६० साल बाद हम गाँधी गिरी की बात करते है पर गाँधी के इस कथन को भूल जाते है। आज भी हमें उनके इस कथन को याद करने की आवश्यकता है । हमारी उपलब्धियां कम नही , पर हमें अभी इससे कही अधिक पाने की आवश्यकता है ।
हमें इस बात पर गर्व है कि हजारों साल पहले हमारे शहर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में नालियों और गलियों की सफाई की उचित व्यवस्था थी।
आज कहने को तो हम २१ वी शताब्दी मे जी रहे है पर मैले के सफाई की जो व्यवस्था है वो बेहद ही शर्मनाक , घृणास्पद और अमानवीय है । हम स्वयं तो अत्यंत ही स्वच्छ रहना चाहते है लेकिन भाई अपने हाथ गंदे करे तो कौन ? विकास की इतने दावों के बाद आज भी हमारे कई कस्बों यहा तक की शहरों तक में सिर पर मैला ढोने की प्रथा आज भी कायम है । आकड़ों की माने तो आज भी १२ लाख से ज्यादा लोग इस अमानवीय पेशे से जुंड़े है ।


क्रमशः

Monday, August 27, 2007

दोस्त का कन्धा

मुझे पता है , शायद अपको भी पता हो , सुख होता है जन्म से श्रपित अपनी अकाल मृत्यु के लिए , और दुःख खोज ही लेता है उस घर को जिसे हम बनाते है अपने सुख के लिए । आज कल की प्रोफेशनल लाइफ मे बस दो मिनट का कामॅशियल ब्रेक काफी माना जाने लगा है , हादसों को भुलाने के लिए । जबकि उनकी टीस उम्र भर रहती है हमारे दिल में। और कभी-कभी ढ़ुंढ़ने पर भी सारे शहर में भी दिखाई नहीं देता वो दोस्त जो कुछ देर के लिए दे सके अपना कन्धा रोने के लिए ।

Tuesday, August 21, 2007

समगोत्रिय

कभी-कभी हमारे आस -पास अचानक कुछ ऐसा घटित हो जाता है , जो हमे यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या आज भी हम पाषाण युगीन साभ्यता में ही नहीं जी रहें है ?
घटना मेरी एक महिला मित्र जो पेशे से एक पत्रकार है उनकी है। एक तरफ तो हम ये दावा करते है कि हमारी मानसिकता बदल गयी है वही दूसरी तरफ हम ब्रह्मणवाद के खोखले आड़्म्बरों और पोंगा पंथी मानसिकता को आज भी ढो रहें है। घटना की
शुरुआत होती है जब वो लडकी अपने ही जाति के एक समगोत्रिय लड़के से शादी कर लेती है। एक तरफ तो हम अपनी बदली मानसिकता को सिद्ध करने को अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा देते है उन्हें पूरी आज़ादी देते है
की वो अपने पसंद का करियर चुन सके वही दूसरी तरफ हम उनकी जिंदगी के सबसे बड़े फैसले उनकी शादी के फैसले में अपनी मर्जी चलाते है । आज ये किसी एक की समस्या नहीं है , छोटे शहरों कस्बों से महानगरों का रुख़ करने वाले हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने अनुरुप अपने शादी के फैसलें लेते है या लेना चाहते है । कहीं जाति की दीवार सामने आती है तो कहीं समाज के कुछ ठेकेदार उनके बिरोध में खड़े नज़र आते है । आखिर कब तक हम धर्म और समाज की दुहाई देकर उनके अरमानों का गला घोटेंगे । कब हम अपनी इन दकियानुसी सोचों को बदल पाएंगे ? मेरे एक मित्र है आजतक में वो भी आजकल कुछ ऎसी ही परेशानियों से दो- चार हो रहे है । हां उनकी समस्या सम्गोत्रिय नही , अंतर्जातिय है। पहले तो उनकी शादी हो नही पाती और अगर हो भी गयी तो आधी जिन्दगी कुटुम्बी उपेक्षा में और आधी परिजनों को मनाने में बीत जाती है । क्रमशः

Sunday, August 19, 2007

आवारा मसीहा

सबसे पहले मैं क्षमाप्रार्थी हूँ अपने ब्लोग के इस नाम के लिए ।
हो सकता है कि कुछ लोगों को इस नाम मे आप्ती हो लेकिन इस नाम के दो कारण है पहला तो ये की मैंने काफी नामों को रखकर देखा पर कोई भी नही मिल सका, दूसरा ये कि मुझे रचना काफी अच्छी लगती है