Wednesday, December 5, 2007
कहाँ जाये तसलीमा
तसलीमा नसरीन अब क्या करें ? कहाँ जाये ? इन्हें कट्टरपंथियो के आगे घुटने टेकने होंगे या उन्हें भारत छोड़ना होगा क्या होगा उनका ? पर हमऔर आप क्यों सोचने यह सब हमने तो बस देख सुन लिया , चाय , काफ़ी पीकर गरमा - गरम बहस कर ली और हो गया बस। आखिर क्यों सोचें हम तसलीमा के बारे में । उसने लिखा ही क्यों कुछ ऐसा वैसा अब भुगते वो हमें क्या । लेकिन कब तक , कब तक हम बचकर निकलते रहेंगे इन अप्रिय सवालों से । वैसे ये कोई नयी बात नहीं । यहाँ कभी सफदर मारे जाते है तो कभी रुश्दी के सर की बोली लगाइए जाती है तो कभी तसलीमा को भटकने को मजबूर किया जाता है। कब तक हम अपनी नीतियाँ , सोच , अपना लक्ष्य अपना लेखन उनकी मरजी से तय करेंगें . अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी स्वतंत्रता जनतंत्र का आधार है पर तसलीमा को ये भी मयस्ससर नहीं । इस बार मामला अन्य मामलों से थोड़ा अलग है क्योकि इस बार गवाह खुद कटघरे में खड़ा है । धर्मं की राजनीति करने के लिए हर बार भाजपा पर अंगुली उठाने वाली और खुद को सेकुलारिस्टों की पार्टी कहने वाली वामपंथियों का दोहरा चरित्र सबके सामने आया है । नंदीग्राम के बाद यह दूसरा मौका है जब वामपंथियों की सच्चाई और आइडियोलाजी सबके सामने आयी है । बंगाल में पंचायत चुनाव होने वाले है ऐसे में तसलीमा के साथ खड़ी होकर वाम मुसलमानों के बड़ा वर्ग को नाराज नहीं करना चाहती । स्वाधीन भारत में १९४७ तक ब्रिटिश शासकों द्वारा जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाया गया उसने हिन्दू चेतना को तो धर्मं , भाषा और क्षेत्र के आधार पर बांटा है वही मुस्लिमों को मजहब के नाम पर संगठित किया है जिसके कारन मुस्लिम एक बड़े वोट बैंक के रुप में उभरा है । अचानक ndtv के मुक़ाबला में सत्यवत चतुर्वेदी का बयान याद आ गया की" किसी को भी किसी कि भावना को ठेस पहुचाने का कोई हक नहीं" । अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब राम मुद्दे को जिसमे कांग्रेस ने अपने दिए गए हलफनामें में राम के अस्तित्व को ही नकार दिया था तब तो उन्हें लोगों के भावना को ठेस पहुचाने की चिंता नहीं थी । हर बार ये चिंता मुस्लिमों के साथ ही क्यों होती है ? ऐसा पहली बार नहीं जब कांग्रेस ने इसप्रकार के विवादों में अपना दोगलापन दिखाया है । जब वो मुसलमानों को खुश करने के लिए संविधान में संशोधन कर सकती है तो अपने ही दिए गए वयानों में संशोधन करना कौन सी बड़ी बात है । राम के बारे में अगर भाजपा या हिंदुत्वा पार्टियों ने कुछ कहा तो वो धर्मं की राजनीति होती है मुसलमानों को खुश करने के लिए लिए गए हर सही गलत धर्मानिरपेक्षता। क्यों हर बार उनका हर मामला धार्मिक हो जाता है और हमारा हर धार्मिक मामला ामजिक् शायद इसके लिए ये तथाकथित धर्मानिरपेक्ष पार्टिया जिम्मेवार है जो इन्हें शह देती है । जहाँ ये संख्या में ज्यादा है वहाँ अपनी शरीयत लाद देंगे और जहाँ कम है वहाँ मजहब पर हल्ला , शरीयत पर हमला और इसलाम ख़तरे में का नारा लगाने लगेंगे । ये तो खैरियत है की इसबार कटघरे में तसलीमा नसरीन है अगर इनकी जगह कोई शुक्ल , शर्मा , यादव या पाण्डेय होते तो अबतक ये फतवा कंपनिया अब तक उनके सर की बोली लगाकर कोई फतवा ठोक चूकी होती । रही सही कसर ये सूडो सेकुलारिस्ट पूरी कर देते है जो औप्रेस्सेड मायनारिटी के नाम पर उनकी हर गलत को सही ठहराते उनके कदम से कदम मिलते चलते है । बहुसंख्यक कट्टरवाद से ज्यादा खतरनाक है ये अल्पसंख्यक कट्टरवाद माकपा और कांग्रेस जितनी जल्दी इसबात को समझ ले उतना अच्छा है ।
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