Thursday, October 18, 2007

झारखंड का बाल दस्ता

झारखंड के ग्रामीण इलाकों और जंगलों से गुजरते हुए अगर किसी छोटे बच्चे के हाथ में कोई हथियारनुमा सामान नज़र आए तो आप उसे खिलौना समझने की भूल मत कीजिएगा. वह सच में हथियार हो सकता है. सौ फीसदी असली.झारखंड में पीपुल्स वार ग्रूप और एमसीसी जैसे नक्सली संगठनों में पहले भी बच्चों का इस्तेमाल होता रहा है. बाद में इन दोनों संगठनों के विलय के बाद बने सीपीआई माओवादी ने तो संगठन में बजाप्ता बाल दस्ते का गठन ही कर लिया. अब हालात ये हैं कि राज्य में फैले अधिकांश नक्सली संगठनों में बच्चे सक्रिय लड़ाई में शामिल हो गए हैं.सीपीआई माओवादी में 13-14 साल के बच्चे पहले भी हथियारबंद लड़ाई में शामिल रहे हैं. कम से कम राज्य की पुलिस तो ऐसा ही मानती है. राज्य सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान में बाल नक्सलियों की तस्वीर के साथ पूरे-पूरे पन्ने के पोस्टर और विज्ञापन भी छापे हैं. बच्चों के इस्तेमाल को सार्वजनिक करने के बाद माना जा रहा था कि नक्सली संगठनों में इस पर रोक लगेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नक्सली संगठनों ने इस ओर कुछ ज्यादा ही ध्यान देना शुरु कर दिया. सीपीआई माओवादी से अलग हो कर बनाई गई तृतीय प्रस्तुति कमेटी ने तो झारखंड में अपने हरेक इलाके में बच्चों का दस्ता तैयार कर लिया है. और अगर इनके नेताओं पर भरोसा किया जाए तो आने वाले दिनों में किशोर उम्र के कैडर पर अधिक ध्यान देने के लिए संगठन ने कमर कस ली है.तृतीय प्रस्तुति कमेटी यानी टीपीसी पलामू के सबजोनरल कमांडर गिरी जी कहते हैं- “संगठन को मज़बूत करने के लिहाज से यह ज़रुरी था कि हम बच्चों पर ध्यान दें. ये बच्चे ही कल की लड़ाई लड़ेंगे.”हालांकि गिरी जी इस बात से इंकार करते हैं कि उनके संगठन में इन बच्चों को हथियारों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है. गिरी जी के अनुसार दूसरे माओवादी संगठन तो ऐसा कर रहे हैं लेकिन उनके संगठन में सोलह साल तक के बच्चों को हथियारों से दूर रखा जा रहा है.एक और सबज़ोनल कमांडर छोटू जी बताते हैं- “ हम माओवादियों की तरह बच्चों को हथियार की लड़ाई में नहीं झोंक रहे हैं. इन बच्चों को हथियारों की प्राथमिक जानकारी तो इसलिए दी जाती है, जिससे कभी भी आपात स्थिति में ये बच्चे दुश्मन से निपट सकें लेकिन हमारा सारा ध्यान इनके मानसिक विकास में हैं. इसलिए हम इन बच्चों के लिए सुविधानुसार स्कूल भी चला रहे हैं.”सीपीआई माओवादी और टीपीसी, दोनों ही संगठन अपने बाल दस्ता के सदस्यों से गुप्त सूचनाओं का आदान प्रदान करने, गीत व नाटकों के माध्यम से अपना संदेश फैलाने व समान ढोने का काम लेते है. दोनों ही संगठन अपने इलाके में इन बच्चों के अधिकतम इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं. टीपीसी ने तो सीपीआई माओवादी के बाल दस्ते के कई सदस्यों को अपने संगठन में शामिल भी किया है.आख़िर नक्सली संगठनों को बच्चों पर इतना जोर क्यों है, इसका जवाब झारखंड के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी देते हैं- “बच्चों पर कोई शक नहीं करता, इसका लाभ ये नक्सली संगठन ले रहे हैं. हमारे लिए नक्सलियों के बाल दस्ते से निपटना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है.” इस पुलिस अधिकारी के अनुसार मुठभेड़ के दौरान जब बच्चों से सामना हो जाता है तो उन पर गोली भी चलाई नहीं जाती. ये बच्चे जब खबरों का आदान प्रदान करते है या कोई आग्नेयास्त्र लेकर एक जगह से दूसरी जगह जाते है तो उनपर किसी को शक नहीं होता. अगर ये पकड़े गये तो इन्हें हिरासत में रखना भी कम मुश्किल नहीं है. इसके अलावा मानवाधिकार संगठनों के कारण पुलिस इनके खिलाफ कोई सख्त कदम भी नहीं उठा

1 comment:

समीर सृज़न said...

aapne bilkul sahi farmaya... mai aur meri team ek documentary ke silsile me saranda ke junglo aur aise hi mcc ke ilako me khak chhanne ke dauran mahsus kiya..