Friday, August 31, 2007

आजादी के मायने

महात्मा गाँधी ने कहा था " स्वतंत्र भारत में हमें हर व्यक्ति के आँखों से आंसू पोछने होंगे " आज आजादी के ६० साल बाद हम गाँधी गिरी की बात करते है पर गाँधी के इस कथन को भूल जाते है। आज भी हमें उनके इस कथन को याद करने की आवश्यकता है । हमारी उपलब्धियां कम नही , पर हमें अभी इससे कही अधिक पाने की आवश्यकता है ।
हमें इस बात पर गर्व है कि हजारों साल पहले हमारे शहर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में नालियों और गलियों की सफाई की उचित व्यवस्था थी।
आज कहने को तो हम २१ वी शताब्दी मे जी रहे है पर मैले के सफाई की जो व्यवस्था है वो बेहद ही शर्मनाक , घृणास्पद और अमानवीय है । हम स्वयं तो अत्यंत ही स्वच्छ रहना चाहते है लेकिन भाई अपने हाथ गंदे करे तो कौन ? विकास की इतने दावों के बाद आज भी हमारे कई कस्बों यहा तक की शहरों तक में सिर पर मैला ढोने की प्रथा आज भी कायम है । आकड़ों की माने तो आज भी १२ लाख से ज्यादा लोग इस अमानवीय पेशे से जुंड़े है ।


क्रमशः

Monday, August 27, 2007

दोस्त का कन्धा

मुझे पता है , शायद अपको भी पता हो , सुख होता है जन्म से श्रपित अपनी अकाल मृत्यु के लिए , और दुःख खोज ही लेता है उस घर को जिसे हम बनाते है अपने सुख के लिए । आज कल की प्रोफेशनल लाइफ मे बस दो मिनट का कामॅशियल ब्रेक काफी माना जाने लगा है , हादसों को भुलाने के लिए । जबकि उनकी टीस उम्र भर रहती है हमारे दिल में। और कभी-कभी ढ़ुंढ़ने पर भी सारे शहर में भी दिखाई नहीं देता वो दोस्त जो कुछ देर के लिए दे सके अपना कन्धा रोने के लिए ।

Tuesday, August 21, 2007

समगोत्रिय

कभी-कभी हमारे आस -पास अचानक कुछ ऐसा घटित हो जाता है , जो हमे यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या आज भी हम पाषाण युगीन साभ्यता में ही नहीं जी रहें है ?
घटना मेरी एक महिला मित्र जो पेशे से एक पत्रकार है उनकी है। एक तरफ तो हम ये दावा करते है कि हमारी मानसिकता बदल गयी है वही दूसरी तरफ हम ब्रह्मणवाद के खोखले आड़्म्बरों और पोंगा पंथी मानसिकता को आज भी ढो रहें है। घटना की
शुरुआत होती है जब वो लडकी अपने ही जाति के एक समगोत्रिय लड़के से शादी कर लेती है। एक तरफ तो हम अपनी बदली मानसिकता को सिद्ध करने को अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा देते है उन्हें पूरी आज़ादी देते है
की वो अपने पसंद का करियर चुन सके वही दूसरी तरफ हम उनकी जिंदगी के सबसे बड़े फैसले उनकी शादी के फैसले में अपनी मर्जी चलाते है । आज ये किसी एक की समस्या नहीं है , छोटे शहरों कस्बों से महानगरों का रुख़ करने वाले हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने अनुरुप अपने शादी के फैसलें लेते है या लेना चाहते है । कहीं जाति की दीवार सामने आती है तो कहीं समाज के कुछ ठेकेदार उनके बिरोध में खड़े नज़र आते है । आखिर कब तक हम धर्म और समाज की दुहाई देकर उनके अरमानों का गला घोटेंगे । कब हम अपनी इन दकियानुसी सोचों को बदल पाएंगे ? मेरे एक मित्र है आजतक में वो भी आजकल कुछ ऎसी ही परेशानियों से दो- चार हो रहे है । हां उनकी समस्या सम्गोत्रिय नही , अंतर्जातिय है। पहले तो उनकी शादी हो नही पाती और अगर हो भी गयी तो आधी जिन्दगी कुटुम्बी उपेक्षा में और आधी परिजनों को मनाने में बीत जाती है । क्रमशः

Sunday, August 19, 2007

आवारा मसीहा

सबसे पहले मैं क्षमाप्रार्थी हूँ अपने ब्लोग के इस नाम के लिए ।
हो सकता है कि कुछ लोगों को इस नाम मे आप्ती हो लेकिन इस नाम के दो कारण है पहला तो ये की मैंने काफी नामों को रखकर देखा पर कोई भी नही मिल सका, दूसरा ये कि मुझे रचना काफी अच्छी लगती है

साथियों आपका स्वागत है।