कभी-कभी हमारे आस -पास अचानक कुछ ऐसा घटित हो जाता है , जो हमे यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या आज भी हम पाषाण युगीन साभ्यता में ही नहीं जी रहें है ?
घटना मेरी एक महिला मित्र जो पेशे से एक पत्रकार है उनकी है। एक तरफ तो हम ये दावा करते है कि हमारी मानसिकता बदल गयी है वही दूसरी तरफ हम ब्रह्मणवाद के खोखले आड़्म्बरों और पोंगा पंथी मानसिकता को आज भी ढो रहें है। घटना की
शुरुआत होती है जब वो लडकी अपने ही जाति के एक समगोत्रिय लड़के से शादी कर लेती है। एक तरफ तो हम अपनी बदली मानसिकता को सिद्ध करने को अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा देते है उन्हें पूरी आज़ादी देते है
की वो अपने पसंद का करियर चुन सके वही दूसरी तरफ हम उनकी जिंदगी के सबसे बड़े फैसले उनकी शादी के फैसले में अपनी मर्जी चलाते है । आज ये किसी एक की समस्या नहीं है , छोटे शहरों कस्बों से महानगरों का रुख़ करने वाले हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने अनुरुप अपने शादी के फैसलें लेते है या लेना चाहते है । कहीं जाति की दीवार सामने आती है तो कहीं समाज के कुछ ठेकेदार उनके बिरोध में खड़े नज़र आते है । आखिर कब तक हम धर्म और समाज की दुहाई देकर उनके अरमानों का गला घोटेंगे । कब हम अपनी इन दकियानुसी सोचों को बदल पाएंगे ? मेरे एक मित्र है आजतक में वो भी आजकल कुछ ऎसी ही परेशानियों से दो- चार हो रहे है । हां उनकी समस्या सम्गोत्रिय नही , अंतर्जातिय है। पहले तो उनकी शादी हो नही पाती और अगर हो भी गयी तो आधी जिन्दगी कुटुम्बी उपेक्षा में और आधी परिजनों को मनाने में बीत जाती है । क्रमशः
घटना मेरी एक महिला मित्र जो पेशे से एक पत्रकार है उनकी है। एक तरफ तो हम ये दावा करते है कि हमारी मानसिकता बदल गयी है वही दूसरी तरफ हम ब्रह्मणवाद के खोखले आड़्म्बरों और पोंगा पंथी मानसिकता को आज भी ढो रहें है। घटना की
शुरुआत होती है जब वो लडकी अपने ही जाति के एक समगोत्रिय लड़के से शादी कर लेती है। एक तरफ तो हम अपनी बदली मानसिकता को सिद्ध करने को अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा देते है उन्हें पूरी आज़ादी देते है
की वो अपने पसंद का करियर चुन सके वही दूसरी तरफ हम उनकी जिंदगी के सबसे बड़े फैसले उनकी शादी के फैसले में अपनी मर्जी चलाते है । आज ये किसी एक की समस्या नहीं है , छोटे शहरों कस्बों से महानगरों का रुख़ करने वाले हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने अनुरुप अपने शादी के फैसलें लेते है या लेना चाहते है । कहीं जाति की दीवार सामने आती है तो कहीं समाज के कुछ ठेकेदार उनके बिरोध में खड़े नज़र आते है । आखिर कब तक हम धर्म और समाज की दुहाई देकर उनके अरमानों का गला घोटेंगे । कब हम अपनी इन दकियानुसी सोचों को बदल पाएंगे ? मेरे एक मित्र है आजतक में वो भी आजकल कुछ ऎसी ही परेशानियों से दो- चार हो रहे है । हां उनकी समस्या सम्गोत्रिय नही , अंतर्जातिय है। पहले तो उनकी शादी हो नही पाती और अगर हो भी गयी तो आधी जिन्दगी कुटुम्बी उपेक्षा में और आधी परिजनों को मनाने में बीत जाती है । क्रमशः
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